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मैं और मेरी दुनियाँ

 * मैं और मेरी दुनियाँ * लोगों के उलझे सोचों से दबा मैं, मेरी दुनियाँ। आड़े-तिरछे सवालों के जबाव देता फंस रहा इनकी गिरफ्त में, मैं और मेरी दुनियाँ। हर मोड़ पर इनकी तराजू पड़ी है और ये दोनों तरफ बैशाखी का सहारा लिए मेरी कीमत तय कर रहे इनकी आंखें अंधी नही  हैं , काल्पनिक हैं जो मेरे हर सच को  पहले से जानते हैं भविष्यवक्ता की तरह। इनकी जालें हर तरफ फैली हैं, काली समंदर की तरह, जो हर वक़्त उफन रही है मुझे डूबाने को। आँधियों की तरह, आतुर हैं यह मुझे उखाड़ फेंकने को। काले घने बादल की तरह, हर वक़्त छाए हैं बरसने के लिए मुझपर। और मैं अपनी उम्मीदों की छतरी थामे इनका सामना कर रहा , उस काली समंदर के ठीक सामने, और आँधियों का रुख भी मेरी और है। अब देखना यह है, कि पहले डूबता हूँ मैं, ढहता हूँ मैं, उखड़ता हूँ मैं, या एक विशाल चट्टान की तरह मैं इनका सामना करता हूँ, बस, एक नई सुबह की तलाश में, जहाँ सुलझे सोचों-सवालों-जवाबों के साथ खड़ा मैं, मेरी दुनियाँ। निशांत प्रियदर्शी ©NISHANT PRIYADARSHI